श्रीरंगलक्ष्मी आदर्श संस्कृत महाविद्यालय

वृन्दावन, मथुरा , उ.प्र. -२८११२१

(शिक्षा मंत्रालय, भारत सरकार एवं केंद्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, जनकपुरी, नई दिल्ली की आदर्श योजना के अंतर्गत)

न्याय

न्याय

विषयों को प्रमाण द्वारा परखना ही न्याय है। प्रमा का कारण प्रमाण कहलाता है। प्रमा का अर्थ है वास्तविक अनुभव। व्यवसाय विशिष्ट असाधारण कारण को करण कहा जाता है। इस प्रकार वास्तविक अनुभव के व्यवसाय विशिष्ट असाधारण कारण को प्रमाण कहा जाता है। वास्तविक अनुभव चार प्रकार के होते हैं – प्रत्यक्ष, अनुज्ञात, उपमिति और शब्द भेद से। प्रमाण भी चार प्रकार का होता है- प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और शब्दभेद। दर्शन दो प्रकार के होते हैं – आस्तिक और नास्तिक में अंतर। जो दर्शन वेदों की सत्ता को स्वीकार करता है उसे आस्तिक दर्शन कहा जाता है। जो दर्शन वेदों के प्रमाण को स्वीकार नहीं करता वह नास्तिक दर्शन कहलाता है। आस्तिक दर्शन छह प्रकार के हैं-न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग, मीमांसा और वेदांत। नास्तिक दर्शन के तीन प्रकार हैं- चार्वाक, जैन और बौद्ध के भेद से। बौद्ध दर्शन के चार प्रकार हैं – वैभाषिक, सौत्रांतिक माध्यमिक और योगाचार के भेद से। इस प्रकार दर्शन के 12 प्रकार हैं। इन दर्शनों में न्याय भी एक दर्शन है। इसमें साक्ष्यों के माध्यम से विषयों का परीक्षण किया जाता है। प्रत्यक्ष प्रमाण से घटपतदि का दर्शन होता है। अनुमान को साक्ष्य द्वारा अनुमति दी जाती है। उप-उपाय उप-परमाणु द्वारा किया जाता है। शब्द बोध शब्द प्रमाण से होता है। इस प्रकार चारों प्रमाणों द्वारा विषयों का परीक्षण करना न्याय कहलाता है।