श्रीरंगलक्ष्मी आदर्श संस्कृत महाविद्यालय

वृन्दावन, मथुरा , उ.प्र. -२८११२१

(शिक्षा मंत्रालय, भारत सरकार एवं केंद्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, जनकपुरी, नई दिल्ली की आदर्श योजना के अंतर्गत)

साहित्य

साहित्य

शब्द और अर्थ के संयोग को साहित्य कहते हैं। लोक कल्याणकारी कवियों के कृत्य साहित्य कहलाते हैं। पाणिनि जी के इस सूत्र से “हित” शब्द “दुधान” क्रिया में “क्त” प्रत्यय जोड़कर पोषण “दधातेरि” का रूप लेने से सिद्ध होता है। हितेन सः सहितम्, तस्य भावः साहित्यम्, व्युत्पत्ति लभ्य साहित्य, इसका अर्थ ‘साहित्य धारण स्वरूप’ शब्द से लिया गया है, जैसा कि ऋषियों ने कहा है। जिनका लोकहित व्यास, वाल्मिकी तथा कालिदास आदि कवियों की वाणी से उसी प्रकार सिद्ध नहीं होता, जैसे आम आदमी अंगूर में विद्यमान मधुर रस को पाकर आनंदित होता है। उसी प्रकार उन महाकवियों की मधुर वाणी को भगवद्भाग के रूप में ग्रहण करके मनुष्य प्रसन्न होकर अपने भाग्य को सराहते हैं और उन महाकवियों की मधुर वाणी को सुनकर और उसका आस्वादन करके अनेकों के दुःख नष्ट हो गये हैं और उनके कल्याण हो गया, साहित्य के भक्तों का। कुछ भी हासिल करना कठिन नहीं है, साहित्य न केवल जनहित है बल्कि साहित्य समाज का दर्पण भी है। साहित्य के प्रति समर्पित व्यक्ति एक देश में रहकर भी संपूर्ण विश्व का ज्ञान प्राप्त कर सकता है। साहित्य एक कर्मकाण्ड होने के कारण लोगों में पढ़ने की प्रवृत्ति स्वाभाविक होती है। अन्य ग्रन्थों में बुद्धि का प्रयत्न अधिक है, परन्तु साहित्य में कठिनता न होने के कारण लोगों की अनायास ही प्रवृत्ति हो जाती है। इसीलिए साहित्य लोकप्रिय, हितकारी और सर्वतोमुखी पुरुषार्थ प्रदान करने वाला होने के कारण सदैव सेवनीय है।
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डॉ विभा गोस्वामी

सहायक प्रोफेसर साहित्य